भारतीय मध्यम वर्ग का संघर्ष कभी खत्म क्यों नहीं होता? भारतीय मध्यम वर्ग वह वर्ग है जिसे समाज में अपनी मान मर्यादा को भी बनाए रखना होता है। बच्चों की शिक्षा पर भी पर्याप्त ध्यान देना होता है तथा समाज में क्या चल रहा है? इसका भी ध्यान रखना जरूरी होता है। बच्चों के विवाह पर भी इन्हें काफी धन खर्च करना पड़ता है।
इसके अतिरिक्त दूसरे के यहां भी कोई फंक्शन होने पर इन्हें स्वयं भी अच्छे कपड़ों का इंतजाम करना पड़ता है जो इनकी अर्थव्यवस्था को कमजोर करता है। इस कारण यह चिंतित रहते हैं। इन लोगों में योग्यता की कोई कमी नहीं रहती। इनके पास कमी होती है तो वह धन की कमी होती है। उच्च वर्ग के समान बौद्धिक स्तर होने के बावजूद भी धन की कमी के कारण यह मात खा जाते हैं। इस कारण यह अक्सर तनावग्रस्त भी हो जाते हैं। मध्यम वर्ग के जो लोग अच्छे कमाई करने लगते हैं , वे मध्यमवर्ग से निकलकर उच्च वर्ग में शामिल हो जाते हैं।
इन लोगों की चिंताओं का कोई अंत नहीं होता। क्योंकि बच्चों को लायक बनाने में अपना पूरा जीवन निकाल देते हैं। फिर उस अनुरूप बच्चों का विवाह या नौकरी न हो तो भी चिंतित रहते हैं। अपनी इज्जत बनाए रखने के लिए यह अपना दुख-दर्द किसी से नहीं कहते हैं। दूसरों से बातचीत करने पर कभी-कभी समाधान मिल जाया करता है। पर क्योंकि यह लोग कहते नहीं इसलिए इन्हें समाधान नहीं मिल पाता और यह चिंताओं से घिरे रहते हैं। एक समस्या का समाधान करो तो दूसरी समस्या ऐसी आ जाती है।
जिस पर धन खर्च करना महंगाई के जमाने में संभव नहीं हो पाता। इस कारण मध्यमवर्ग का संघर्ष खत्म ना होकर अनवरत चलता ही रहता है। परिवार के बच्चों के अच्छी नौकरी में आगे आने पर ही उनको थोड़ी राहत मिलती है। मध्यम वर्ग को श्रम और पूंजी के बीच रखा गया है। यह न तो सीधे तौर पर उत्पादन के साधनों का मालिक है जो मजदूरी श्रम शक्ति द्वारा उत्पन्न अधिशेष को पंप करता है और न ही यह अपने श्रम द्वारा उस अधिशेष का उत्पादन करता है जिसका उपयोग और विनिमय मूल्य होता है।
मध्यम वर्ग में मुख्य रूप से छोटे पूंजीपति और सफेदपोश श्रमिक शामिल हैं। व्यवसाय के संदर्भ में, दुकानदार, सेल्समैन, दलाल, सरकारी और गैर सरकारी कार्यालय कर्मचारी, पर्यवेक्षक और पेशेवर जैसे इंजीनियर, डॉक्टर आदि मध्यम वर्ग का गठन करते हैं। इनमें से अधिकांश व्यवसायों के लिए कम से कम कुछ हद तक औपचारिक शिक्षा की आवश्यकता होती है। मध्यम वर्ग मुख्य रूप से 19वीं और 20वीं शताब्दी में पूंजीवादी विकास और राज्य के कार्यों के विस्तार का परिणाम है।
मोदी के भारत में ये परिवार डिग्री और कौशल प्रशिक्षण की आवश्यकता के साथ, मध्यम वर्ग का दिखावा करने वाली नौकरियों में श्रमिक वर्ग की स्थितियों के चक्रव्यूह में फंस गए हैं। मध्यम वर्ग के युवाओं के लिए रोजगार प्रशिक्षण में सरकार का निवेश सुरक्षित और निष्पक्ष निर्माण से मेल नहीं खाता है। कई लोग कम लागत वाले सरकारी केंद्रों या गैर सरकारी संगठनों में कंप्यूटर और अंग्रेजी बोलने में प्रशिक्षित होने के बारे में शिकायत करते हैं, लेकिन अंत में उन्हें ऐसा काम करना पड़ता है जिसमें इन कौशलों की बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं होती है।
भारत में “मध्यम वर्ग” होने का क्या मतलब है? इसका उत्तर देना कठिन प्रश्न है और मध्यम वर्ग के बारे में हमारे विचार के आधार पर यह भिन्न हो सकता है। लगभग 50% भारतीय खुद को मध्यम वर्ग का मानते हैं। यह हमारे लिए कोई नई बात नहीं है। मध्यम वर्ग क्यों मायने रखता है। इसके कई उत्तर हैं और सामान्य तौर पर, यह अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, इसके स्रोत हैं।
मध्यम वर्ग भी घरेलू खपत को बढ़ावा देता है और विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। शिक्षा और बचत में निवेश जिसे हम आम तौर पर किसी भी अच्छी अर्थव्यवस्था से जोड़ते हैं। वह मुख्य रूप से मध्यम वर्ग द्वारा संचालित होता है। इसलिए हमें इस विचार को त्यागने की जरूरत है कि भारत में मध्यम वर्ग का एक अविश्वसनीय आधार है और सिवाय इसके कि भारत अभी भी एक गरीब देश है। आजादी के बाद से भारत का मध्यम वर्ग एक महत्वपूर्ण वर्ग रहा है।
1857 के विद्रोह के दौरान , वे विद्रोह से लेकर औपनिवेशिक अंग्रेजों के प्रति वफादार रहे। इन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गठन किया जब उन्हें अंग्रेजों के असली मकसद का एहसास हुआ तो उनका पहला उदय हुआ। 1905 के स्वदेशी आंदोलन में देखा गया और उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व किया। तब से, भारतीय मध्य ने विभिन्न रूपों में रूपांतरित होकर समाज, राजनीति, संस्कृति, आदि पर अपना प्रभाव डाला।
शिक्षक, वैज्ञानिक, डॉक्टर, वकील, इंजीनियर की भारतीय समाज को मुख्य रूप से इसी वर्ग से आपूर्ति की जाती है। आईटी क्रांति के दौरान देखा गया कि मध्यम वर्ग का विस्तार स्पष्ट रूप से हो सकता है । लेकिन वे सपनों का भारत बनाने में असफल रहे; किसी राष्ट्र की इच्छाओं के बजाय उनके कौशल मुख्य रूप से व्यक्तिगत केंद्रित थे। वे बड़ी संख्या में विदेश जाने के लिए उड़ान भरने लगे। ऊँचे लक्ष्य, प्रतिभा पलायन, जो हुआ, ने भारत को कम कुशल बना दिया।
स्वतंत्रता के दौरान, यद्यपि वे अल्पसंख्यक थे, फिर भी उन्होंने एक गतिशील अल्पसंख्यक का गठन किया। विचारों और मूल्यों का ढांचा, जिसने स्वतंत्रता संग्राम को प्रेरित किया था। आज़ादी के बाद राजनीति में उनकी भूमिका के मिश्रित पहलू रहे। एक तरफ उनकी राजनीतिक भागीदारी अत्यधिक है। वे सीएसओ, एनजीओ और दबाव समूहों में अभिन्न सदस्य हैं। इनकी 2011 में अन्ना हजारे द्वारा भ्रष्टाचार विरोधी और दिसंबर 2012 में निर्भया मामले में भागीदारी बहुत बड़ी थी।
दूसरी ओर उनका मतदान प्रतिशत घटता जा रहा है; वे राजनीति में विशेषकर शहरी मध्यम वर्ग में कम दिखाई देते हैं। उनके पास भारतीय राजनीतिक प्रकृति पर दृष्टि की कमी रही और अब भी नहीं है। ताली से थाली का संघर्ष करता मध्यम वर्ग मध्यम वर्ग लोकतंत्र का मुख्य आधार है, राष्ट्र, राजनीति और समाज में उनकी भूमिका बहुत बड़ा प्रभाव डालती है।
]]>जैसे साफ़-सफ़ाई की आदत से डायरिया जैसी बीमारी को रोका जा सकता है। ये क़दम तब और असरदार हो जाते हैं, जब एक पीड़ित, दूसरे की मदद करता है। वो अपने ख़ुद के तजुर्बे साझा कर के लोगों का भरोसा जीत सकते हैं। जैसे कोई टीबी-हैजा के मरीज़ रहे लोग इसके शिकार लोगों के बीच काम करें। हिंसक बर्ताव एक महामारी है, जो छुआछूत की बीमारियों की तरह एक इंसान से दूसरे इंसान में फैलती है।
बुद्धिमान लड़ाई से पहले जीतते हैं, जबकि अज्ञानी जीतने के लिए लड़ते हैं। संघर्ष के प्रति बुद्धिमान दृष्टिकोण लड़ाई या हिंसा में शामिल होने से पहले योजना बनाना और रणनीति बनाना शामिल है, जबकि अज्ञानी दृष्टिकोण परिणामों या संभावित परिणामों पर विचार किए बिना केवल लड़ना या हिंसा करना है।
अर्थात बौद्धिक विचार यह है कि किसी स्थिति का सावधानीपूर्वक आंकलन करके और सूचित निर्णय लेकर, कोई भी व्यक्ति शारीरिक युद्ध या हिंसा का सहारा लिए बिना जीत हासिल कर सकता है। यह उद्धरण सलाह देता है कि बुद्धिमानी ऐसी स्थिति को पहले से ही भांप लेने में है जो हिंसा में बदल सकती है और फिर इससे बचने के लिए अपने संसाधनों का उपयोग करना चाहिए।
क्या होता है जब हिंसा को टाला नहीं जा सकता? जब कूटनीति के प्रयास विफल हो जाते हैं, तब भी दुश्मन की ताकत और कमजोरियों का आंकलन करके दूसरे पक्ष पर तुरंत काबू पाने के लिए हिंसा को टाला जा सकता है। दुश्मन या विपक्षी को भ्रमित करने और उनके संसाधनों को बर्बाद करने के लिए धोखे और झूठ का भी इस्तेमाल किया जाता है। हिंसा को क़ानून-व्यवस्था के मसले जैसा समझने के बजाय, इसे सार्वजनिक स्वास्थ्य की चुनौती के तौर पर लिया जाये।
हिंसक बर्ताव एक महामारी है, जो छुआछूत की बीमारियों की तरह एक इंसान से दूसरे इंसान में फैलती है। जो लोग हिंसा के पीड़ित होते हैं, उनके हिंसा करने की आशंका बढ़ जाती है। “हिंसा को ठीक उसी तरह रोका जा सकता है, जैसे गर्भधारण से जुड़ी चुनौतियां, काम के दौरान लगने वाली चोटों या संक्रामक बीमारियों को रोका जाता है। “दिक़्क़त ये है कि दुनिया भर में हिंसा से सख़्ती से निपटने की सोच हावी है। इसलिए हिंसक घटनाओं पर हंगामा होते ही, नेता हों या जनता, सख़्त क़ानून की मांग करने लगते हैं।
इंसान अक्सर जोखिम भरा बर्ताव करता है, ख़तरों से खेलता है। जैसे कि नुक़सान पता होने के बावजूद स्मोकिंग करना या फिर पेट भरने के बावजूद ज़्यादा खाना। बिना एहतियात बरते सेक्स करना। डॉक्टर हमेशा कहते हैं कि इलाज से बचाव बेहतर है। यानी किसी मर्ज़ को होने से ही रोका जाए। लेकिन, जब बात हिंसक बर्ताव की आती है, तो, इससे निपटने का एक ही तरीक़ा लोग बताते हैं, क़ानून सख़्त बना दो। जैसे हाल ही में 12 साल से कम उम्र की बच्ची से बलात्कार पर मौत की सज़ा का प्रावधान।
या फिर भीड़ की हिंसा से निपटने के लिए सख़्त क़ानून बनाने पर हमारे देश में विचार चल रहा है। हिंसा को इंसान का जन्मजात बर्ताव मान लिया गया है, जिसे बदला नहीं जा सकता। सोच यही है कि जो लोग हिंसा करते हैं, उन्हें सही रास्ते पर नहीं लाया जा सकता। इसलिए सख़्त क़ानूनों की बात ही की जाती है। लेकिन, सख़्त क़ानूनों से बात बनती होती, तो कब की बन जाती। सऊदी अरब और ईरान में कई जुर्मों के लिए मौत की सज़ा है। मगर अपराध तब भी नहीं रुकते। भारत में भी कई अपराधों के लिए मौत की सज़ा मिलती है। मगर वो जुर्म अब भी होते हैं।
हिंसा से किस प्रकार बचा जा सकता है? आज देश के जातीय दंगों के संदर्भ में, यह उद्धरण दो समुदायों के बीच संघर्षों को सुलझाने में कूटनीति और बातचीत के महत्व पर प्रकाश डालता है। हिंसा का सहारा लेने के बजाय, जिसके सभी संबंधित पक्षों के लिए विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं, बुद्धिमान नेता बातचीत और समझौते के माध्यम से शांतिपूर्ण समाधान ढूंढने का प्रयास करता है। प्राय: पड़ोसी राज्यों या धार्मिक समुदायों के बीच संघर्ष अक्सर होते रहते हैं, इसलिए हिंसा की घटनाओं को कम करने की दिशा में क्षेत्रीय एकीकरण एक महत्वपूर्ण प्रगति है।
दोनों पक्षों के पारस्परिक लाभ के लिए विवादों को शांतिपूर्ण ढंग से निपटाने की संभावना के बारे में निर्णय लेने वालों की अनभिज्ञता के कारण अक्सर दंगा या हिंसा होती है। इस प्रकार यह संभव है कि सामुदायिक विवादों के निपटारे के लिए वैकल्पिक, शांतिपूर्ण तकनीकों को विकसित और संस्थागत बनाकर और राज्यों को उनका उपयोग करने के लिए राजी करके दंगों की रोकथाम में योगदान दे सकते हैं।
इसे राजनीतिक, क्षेत्रीय या राष्ट्रीय सुरक्षा व्यवस्था के रूप में समझा जा सकता है, जिसमें प्रत्येक इकाई यह स्वीकार करती है कि किसी एक की सुरक्षा भी सभी की सामूहिक चिंता है। अत: वे खतरों और शांति के उल्लंघन के प्रति सामूहिक प्रतिक्रिया के लिए प्रतिबद्ध हैं। इस प्रकार, देश में में चल रहे जातीय संघर्ष को देखते हुए यह उद्धरण समकालीन समय के लिए प्रासंगिक है।
यह हमें याद दिलाता है कि सच्ची जीत ज्ञान और दूरदर्शिता के साथ संघर्षों से निपटने और हिंसा से बचने के लिए शांतिपूर्ण समाधान खोजने से हासिल की जाती है। इसके अलावा, इसे न केवल हिंसा के लिए बल्कि रोजमर्रा के संघर्षों और चुनौतियों पर भी लागू किया जा सकता है। साथ ही, यह उद्धरण सफलता प्राप्त करने के लिए तैयारी, ज्ञान और दूरदर्शिता के महत्व पर भी जोर देता है।
हिंसा के शिकार लोगों को समझाना जरुरी है। बदला लेने की मानसिकता नुक़सान करवाती है, ताकि वो फिर उसी हिंसक दुष्चक्र में न फंस जाएं। कोई शराबी है या ड्रग का आदी है, तो उसकी इलाज करने में मदद की जाती है। फिर उसे रोज़गार दिलाने की कोशिश होती है। तभी कोई भी शख़्स एकदम से बदला हुआ नज़र आ सकता है।
लोगों के बर्ताव में बदलाव लाकर हम कई चुनौतियों को जड़ से ख़त्म कर सकते हैं। जैसे साफ़-सफ़ाई की आदत से डायरिया जैसी बीमारी को रोका जा सकता है। ये क़दम तब और असरदार हो जाते हैं, जब एक पीड़ित, दूसरे की मदद करता है। वो अपने ख़ुद के तजुर्बे साझा कर के लोगों का भरोसा जीत सकते हैं। जैसे कोई टीबी-हैजा के मरीज़ रहे लोग इसके शिकार लोगों के बीच काम करें।
]]>वह हमेशा से चाहते रहे हैं देश के ग्रामीण क्षेत्र खासकर अनुसूचित जाति जनजाति में शिक्षा का शत प्रतिशत प्रचार-प्रसार हो जिससे आडंबर ,अंधविश्वास तथा समाज में व्याप्त कुरीतियों से बचाया जा सके एवं उन्हें उच्च शिक्षा देकर समाज के उच्च स्थानों में स्थापित किया जा सके। उनका उद्देश्य यह भी रहा है कि वे ग्रामीण क्षेत्रों में व्याप्त अंधविश्वास एवं गलत व्यसन आदि से छात्रों को बचाकर उनका सर्वांगीण विकास कर समाज में उचित स्थान में स्थापित करें।
चूंकि शुक्ला जी ग्रामीण पृष्ठभूमि से रहे हैं अतः उनकी सदैव इच्छा रही है कि ग्रामीण क्षेत्र में उच्च शिक्षा का व्यापक प्रचार-प्रसार हो और इसी संदर्भ और दिशा में उच्च शिक्षा विभाग में अपनी सेवा काल में सार्थक तथा अनथक प्रयास भी किए हैं। जिसके लिए वे छत्तीसगढ़ जैसे आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में लगातार अपनी सेवाएं देकर प्रयासरत रहे हैं। वे खुद भी व्यक्तिगत तौर पर कई छात्रों को आर्थिक सहयोग देकर आगे पढ़ने ,बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते रहे हैं।
इस दिशा में इनके परिवार के सदस्यों ने भी अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है उनके एक भाई आध्यात्मिक दिशा में एक स्थापित नाम हैं एवं इसके अलावा ऑर्थोपेडिक सर्जन के रूप मे, आईएएस अधिकारी के रूप में, बैंक में महाप्रबंधक तथा महाविद्यालय शिक्षा में प्राध्यापक रूप में सेवाएं प्रदान कर रहे हैं।शिक्षा की लगाई गई यह बेल अब पूरे परिवार में लहलहा रही है उनके पुत्र, पुत्र वधू, पुत्री, दामाद तथा भाइयों के पुत्र पुत्रियां उच्च पदस्थ डॉक्टर, इंजीनियर और प्रशासनिक सेवा में अपनी सेवाएं समाज में दे रहे हैं। वे लगातार शिक्षा के क्षेत्र में लोगों को विशेषज्ञ सलाह देते रहते हैं और स्त्री शिक्षा के बड़े हिमायती भी हैं।
ग्रामीण परिवेश में किसान परिवार में जन्म लेकर डॉक्टर अंजनी कुमार शुक्ल ने प्राथमिक तथा हायर सेकेंडरी राहोद ग्राम जिला जांजगीरसे प्राप्त की। 1971 में स्नातक परीक्षा ग्राम खरौद के महाविद्यालय से उत्तीर्ण कर स्नातकोत्तर राजनीति शास्त्र में की इसके पश्चात सीएमडी कॉलेज बिलासपुर से पॉलिटिकल साइंस में स्नातकोत्तर उपाधि में प्रावीण्य सूची में तृतीय स्थान प्राप्त किया था। उसके पश्चात विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन से राजनीति शास्त्र में एम,फिल कर प्रावीण्य सूची में प्रथम स्थान प्राप्त किया।
डॉ अंजनी कुमार शुक्ला ने 1990 में गुरु घासीदास विश्वविद्यालय बिलासपुर से राजनीति शास्त्र में ही पीएचडी कर डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की ,उल्लेखनीय है कि ग्रामीण परिवेश से निकले एक कृषक पुत्र द्वारा शिक्षा के उच्चतम प्रतिमान स्थापित कर छत्तीसगढ़ तथा मध्य प्रदेश के कई कॉलेज में व्याख्याता, प्राध्यापक ,परियोजना अधिकारी, कुलसचिव एवं स्नातकोत्तर महाविद्यालय में प्राचार्य का दायित्व ईमानदारी ,लगन एवं सत्य निष्ठा से सुशोभित किया,उन्हें उनकी विशिष्ट योग्यता, लगन तथा लगातार इमानदारी पूर्वक सराहनीय कार्य करने के फल स्वरुप अतिरिक्त संचालक उच्च शिक्षा के रूप में पदस्थ किया गया ।
उसके पश्चात उन्हें उनकी उच्च गुणवत्ता की सेवा का ध्यान रखते हुए विश्वविद्यालय ने महाविद्यालय विकास परिषद रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुर के संचालक का पद सौंपा, उन्हें 2017 अप्रैल में महामहिम राज्यपाल छत्तीसगढ़ शासन रायपुर द्वारा छत्तीसगढ़ निजी विश्वविद्यालय विनियामक आयोग रायपुर का अध्यक्ष यानी चेयर पर्सन नियुक्त किया गया। यह किसी ग्रामीण परिवेश के विद्यार्थी के लिए जिसने अपनी शिक्षा दीक्षा ग्राम के स्कूलों में प्राप्त कर शिक्षा के प्रति अपनी लगन को दर्शाते हुए एक नया कीर्तिमान बनाया।
वे सर्वप्रथम तत्कालीन मध्यप्रदेश के अधीन रायपुर जिले की भगवान राजीव लोचन की पवित्र नगरी राजिम के एक निजी महाविद्यालय से अपनी सेवाएं प्रारंभ कर अतिरिक्त संचालक उच्च शिक्षा तक की यात्रा में दो बार लोक सेवा आयोग की परीक्षा जिसमें प्रथम बार व्याख्याता एवं द्वितीय परीक्षा में प्रोफेसर पद के लिए चयनित हुए और फिर उसके बाद इनकी पदोन्नति लगातार होती रही। वे कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय रायपुर के कुलसचिव भी रहे।
सीधे ,सरल,सौम्य एवं नियमित दिनचर्या के धनी डॉ,अंजनी शुक्ला जी संस्कृत तथा गीता के एक अच्छे ज्ञाता भी हैं उन्हें गीता के श्लोकों का कंठस्थ ज्ञान है।इसके अलावा डॉक्टर शुक्ला लोक सेवा आयोग छत्तीसगढ़ एवं मध्य प्रदेश के विशेषज्ञ चयनकर्ता एवं परीक्षक भी हैं उन्हें समय-समय पर साक्षात्कार के लिए एवं लोक सेवा आयोग के पदों के परीक्षार्थियों के चयन के लिए आमंत्रित किया जाता है।
इसके अतिरिक्त वे आमंत्रण पर कई महाविद्यालय में व्याख्यान देने के लिए अपनी सेवाएं प्रदान करते रहते हैं। डॉक्टर अंजनी कुमार शुक्ला का स्कूली शिक्षा से लेकर अब तक का जीवन शिक्षा मानवता एवं मानवीय संवेदनाओं को समर्पित रहा है आज भी लगातार लोगों को शिक्षा के प्रति एवं मानवीय संवेदना के प्रति प्रोत्साहित करते रहते हैं वह युवाओं के प्रेरणा स्रोत और ऊर्जा स्रोत भी हैं। उनके शतायु होने की शुभकामनाओं के साथ मंगलकामनाएं।
]]>भारत मूलतः विविधताओं का देश है, विविधताओं में एकता ही यहाँ की सामासिक संस्कृति की स्वर्णिम गरिमा को आधार प्रदान करती है। वैदिक काल से ही सामासिक संस्कृति में अंतर और बाह्य विचारों का अंतर्वेशन ही यहाँ की विशेषता रही है, इसलिये किसी भी सांस्कृतिक विविधता को आत्मसात करना भारत में सुलभ है।
इसी परिप्रेक्ष्य में धार्मिक सहचार्यता भी इन्हीं विशेषताओं में से एक रही है, इसका अप्रतिम उदाहरण सूफीवाद में देखा जा सकता है जहाँ पर इस्लामिक एकेश्वरवाद और भारतीय धर्मों की कुछ विशेषताओं का स्वर्णिम संयोजन हुआ तथा परिणामस्वरूप एक संश्लेषित धार्मिक वैचारिकता का सफल अनुगमन हुआ। किंतु हाल के वर्षों में भारत की सांस्कृतिक विविधता- सांस्कृतिक विषमता में अंतरित हो रही है जिससे लोगों के मध्य सद्भाव में ह्रास के साथ ही सांस्कृतिक विशेषता पर भी नकारात्मक प्रभाव भी पड़ रहा है।
एक राजनीतिक दर्शन के रूप में सांप्रदायिकता की जड़ें भारत की धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता में मौजूद हैं। भारत में सांप्रदायिकता का प्रयोग सदैव ही धार्मिक और जातीय पहचान के आधार पर समुदायों के बीच सांप्रदायिक घृणा और हिंसा के आधार पर विभाजन, मतभेद और तनाव पैदा करने के लिये एक राजनीतिक प्रचार उपकरण के रूप में किया गया है। सांप्रदायिक हिंसा एक ऐसी घटना है जिसमें दो अलग-अलग धार्मिक समुदायों के लोग नफरत और दुश्मनी की भावना से लामबंद होते हैं और एक-दूसरे पर हमला करते हैं।
देश में फेक न्यूज़ के तीव्र प्रसार से सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने में सोशल मीडिया ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। सोशल मीडिया हिंसा के माध्यम से दंगों और हिंसा के ऑडियो-विज़ुअल का प्रसार काफी सुगम और तेज़ हो गया है। हिंसा से संबंधित ये अमानवीयता ग्राफिक चित्रण आम जनता में अन्य समुदायों के प्रति घृणा को और बढ़ा देते हैं।
पत्रकारिता की नैतिकता और तटस्थता का पालन करने के स्थान पर देश के अधिकांश मीडिया हाउस विशेष रूप से किसी-न-किसी राजनीतिक विचारधारा के प्रति झुके हुए दिखाई देते हैं, जो बदले में सामाजिक दरार को चौड़ा करता है। वर्तमान समय में विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा अपने राजनीतिक लाभों की पूर्ति के लिये सांप्रदायिकता का सहारा लिया जाता है।
एक प्रक्रिया के रूप में राजनीति का सांप्रदायीकरण भारत में सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने के साथ-साथ देश में सांप्रदायिक हिंसा की तीव्रता को बढ़ाता है। भारतीय लोगों में आमतौर पर मूल्य-आधारित शिक्षा का अभाव देखा जाता है, जिसके कारण वे बिना सोचे-समझे किसी की भी बातों में आ जाते हैं और अंधानुकरण करते हैं।
विकास का असमान स्तर, वर्ग विभाजन, गरीबी और बेरोज़गारी आदि कारक सामान्य लोगों में असुरक्षा का भाव उत्पन्न करते हैं। असुरक्षा की भावना के चलते लोगों का सरकार पर विश्वास कम हो जाता है, परिणामस्वरूप अपनी ज़रूरतों/हितों को पूरा करने के लिये लोगों द्वारा विभिन्न राजनीतिक दलों, जिनका गठन सांप्रदायिक आधार पर हुआ है, का सहारा लिया जाता है।
दो समुदायों के बीच विश्वास और आपसी समझ की कमी या एक समुदाय द्वारा दूसरे समुदाय के सदस्यों का उत्पीड़न आदि के कारण उनमें भय, शंका और खतरे का भाव उत्पन्न होता है। इस मनोवैज्ञानिक भय के कारण लोगों के बीच विवाद, एक-दूसरे के प्रति नफरत, क्रोध और भय का माहौल पैदा होता है।
सांप्रदायिक हिंसा के दौरान निर्दोष लोग अनियंत्रित परिस्थितियों में फँस जाते हैं, जिसके कारण व्यापक स्तर पर मानवाधिकारों का हनन होता है। सांप्रदायिक हिंसा के कारण जानमाल का काफी अधिक नुकसान होता है। सांप्रदायिक हिंसा वोट बैंक की राजनीति को बढ़ावा देती है और सामाजिक सामंजस्य प्रभावित होता है। यह दीर्घावधि में सांप्रदायिक सद्भाव को गंभीर नुकसान पहुँचाती है। सांप्रदायिक हिंसा धर्मनिरपेक्षता और बंधुत्व जैसे संवैधानिक मूल्यों को प्रभावित करती है।
सांप्रदायिक हिंसा में पीड़ित परिवारों को इसका सबसे अधिक खामियाज़ा भुगतना पड़ता है, उन्हें अपना घर, प्रियजनों यहाँ तक कि जीविका के साधनों से भी हाथ धोना पड़ता है। सांप्रदायिकता देश की आंतरिक सुरक्षा के लिये भी चुनौती प्रस्तुत करती है क्योंकि सांप्रदायिक हिंसा को भड़काने वाले एवं उससे पीड़ित होने वाले दोनों ही पक्षों में देश के ही नागरिक शामिल होते हैं।
सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के लिये पुलिस को अच्छी तरह से सुसज्जित होने की आवश्यकता है। इस तरह की घटनाओं को रोकने हेतु स्थानीय खुफिया नेटवर्क को मज़बूत किया जा सकता है। सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के लिये शांति समितियों की स्थापना की जा सकती है जिसमें विभिन्न धार्मिक समुदायों से संबंधित व्यक्ति सद्भावना फैलाने और दंगा प्रभावित क्षेत्रों में भय तथा घृणा की भावनाओं को दूर करने के लिये एक साथ कार्य कर सकते हैं। यह न केवल सांप्रदायिक तनाव बल्कि सांप्रदायिक दंगों को रोकने में भी मददगार साबित होगा। देश के आम लोगों को मूल्य आधारित शिक्षा दी जानी चाहिये, ताकि वे आसानी से किसी की बातों में न आ सकें।
शांति, अहिंसा, करुणा, धर्मनिरपेक्षता और मानवतावाद के मूल्यों के साथ-साथ वैज्ञानिकता (एक मौलिक कर्त्तव्य के रूप में निहित) और तर्कसंगतता के आधार पर स्कूलों और कॉलेजों/विश्वविद्यालयों में बच्चों के उत्कृष्ट मूल्यों पर ध्यान केंद्रित करने, मूल्य-उन्मुख शिक्षा पर ज़ोर देने की आवश्यकता है जो सांप्रदायिक भावनाओं को रोकने में महत्त्वपूर्ण साबित हो सकते हैं।
मौजूदा आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार कर शीघ्र परीक्षणों और पीड़ितों को पर्याप्त मुआवज़ा प्रदान करने की व्यवस्था की जानी चाहिये। भारत सरकार द्वारा सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के लिये वैश्विक स्तर पर मलेशिया जैसे देशों में प्रचलित अभ्यासों का अनुसरण किया जा सकता है। सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के लिये मज़बूत कानून की आवश्यकता होती है। साथ ही देश के नागरिकों को ये समझने की आवश्कता है कि-
*कब गीता ने ये कहा, बोली कहां कुरान।करो धर्म के नाम पर, धरती लहूलुहान।।*
]]>न इन्हे मासूम बच्चों की परवाह है? ऐसे रिश्ते सिर्फ समाज को भटकाने का काम करते है। क्योंकि इनकी देखा-देखी और बातें आएंगी आगे। ये सब इसी को स्वतंत्रता कहते हैं। उन मासूम और बेगुनाह बच्चों पर क्या बीत रही होगी। मैं तो यही सोच सोच कर दुखी हो रहा हूं। पर वो दुखी नहीं कि 15 साल की बेटी कैसे दुनिया का सामना करेगी?
अभी पाकिस्तानी नागरिक सीमा गुलाम हैदर और भारत के सचिन की असामान्य प्रेम कहानी के उलझे तार सुलझे भी नहीं थे कि राजस्थान की अंजू और पाकिस्तानी प्रेमी नसरुल्ला की प्रेम कहानी के किस्से सुर्खियां बनने लगे। लेकिन इन हालिया प्रेम कहानियों में कई तरह के उलझे पेच भी हैं। एक तो ये रिश्ते अलग-अलग धर्मों के बीच पनपे हैं दूसरे इनमें परिवारों की कोई भूमिका नहीं रही है।
अन्यथा विगत में रिश्तेदारों-पड़ोिसयों या कारोबारी संबंधों के जरिये ये प्रेम कहानियां सिरे चढ़ती रही हैं। हालिया दोनों प्रेम कहानियों में ये चीज एक जैसी है कि प्रेम सोशल मीडिया के जरिये परवान चढ़ा। हालांकि, पुरानी कहावत है कि प्रेम आंख मूंदकर होता है और उसमें तर्कों की कोई गुंजाइश नहीं होती। लेकिन हाल के दिनों में सैकड़ों ऐसे प्रकरण सामने आए हैं जिनमें सोशल मीडिया के जरिये रिश्ते गांठकर सेना, वायुसेना व नौसेना के अधिकारियों व कर्मचारियों को किसी सुंदरी के जरिये पाकिस्तान से जासूसी के लिये इस्तेमाल किया जाता रहा है।
यह गहन शोध का विषय है। हमने आजतक इस विषय को गम्भीरता से नही लिया है। आजकल की पीढ़ी पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण कर रही है। अंग प्रदर्शन, एशो-आराम, अवांछित स्वतंत्रता, आधुनिकता का दिखावा और अच्छे संस्कारो का अभाव और अनैतिकता और पैसे की प्रति अत्यधिक लगाव जैसी आदतें मुख्य कमजोरी बन गई है। संयुक्त परिवार की अवधारणा समाप्त होती जा रही है। लिहाज और शर्म की भावना लगभग खत्म हो गई है।
कई बार ऐसा होता है, औरतें घर छोड़कर भाग जाती हैं। कभी अकेली ही तो कभी सहारे के लिए किसी के साथ, इसलिए नहीं कि उन्हें डराती हैं जिम्मेदारियां, उन्हें डराते हैं लोग और ले जाते हैं इस हद तक, कि तिनका-तिनका जोड़ा घर ही, उन्हें बेगाना लगने लगता है। बेगानी बस्ती से ज्यादा, वो घर जिसे बार-बार, उसे अपना बताया जाता है। जन्म लेने से मरने तक, जो कभी उसका होता ही नहीं, सास बनने तक सास का शासन, बहू के आने से पहले ही,घर झिन जाने का डर, उसे हर पल सताता है।
जिस घर को उसे बार-बार उसका अपना बताया जाता है। इतना तो वह सह जाती है,पर जब गांठ बांधकर, हाथ थाम कर लाने वाला ही, कब पराया हो जाता है। गांठ खोलकर आलमारी में रख देता है, और हाथ पकड़कर, किसी और का हो लेता है, तब औरत, बेगानों को छोड़कर, बेगानी बस्ती की ओर निकल जाती है।
इन घटनाक्रमों ने एक बार फिर से सोशल मीडिया की सामाजिकता को लेकर बहस तेज कर दी है। हाल की दोनों घटनाओं को छोड़ भी दें तो देश में हजारों किस्से ऐसे हैं कि जिनमें सोशल मीडिया के जरिये लड़कियों से छल किया गया। उन्हें लूटा गया और उनकी हत्या तक कर दी गई। एक परिपक्व व्यक्ति के लिये सोशल मीडिया के गहरे निहितार्थ हैं।
लेकिन छोटी उम्र में बहकने को भटकाव ही कहा जायेगा। वहीं वैवाहिक रिश्तों के दरकने को भारतीय समाज के लिये एक बड़ी चुनौती माना जाएगा। जो समाज में कई तरह की विकृतियों को जन्म दे सकता है। रिश्तों की पवित्रता को लेकर पश्चिमी जगत में जिस भारत की मिसाल दी जाती रही है आज वह ही रिश्तों के संक्रमण वाले दौर से गुजर रहा है।
औरते तो रोज भागती हैं। पर उनके भागने में और बॉर्डर पार शादीशुदा औरत के भागने में बड़ा फर्क है। यह एक सामाजिक त्रासदी है। उच्छृंखलता नहीं। देश के लिए प्रेम त्यागा जा सकता है। प्रेम के लिए देश नहीं। ऐसे लोगों की चर्चा भी नहीं होनी चाहिए।क्या आज की कानून व्यवस्था से वह राजा-महाराजाओ और अंग्रेजों वाला कानून में फैसलों में देरी नहीं होना दंड प्रक्रिया के अंतर्गत तुरंत सजा देकर निस्तांतरण हो जाना आज के मुकाबले बेहतर लगता है।
सामाजिक खाप पंचायतों/पंचो-पटैलो/मुखियाओं का विरोध विरोध हुआ उन्हें रूढ़िवादी, गैर परंपरागत, अमानवीय,और घृणित मानसिकता घोषित कर उन्हें बंद कराने के लिए कानून में महिला उत्पीडन के आधे अधूरे दावो पर कानूनो में संशोधन किया तो विसंगतिपूर्ण कानून ने महिलाओ को स्वछंद-स्वतंत्रत होने के ऐसे पंख लगा दिए गये। जिसके विकृत परिणाम स्वरूप ऐसे मामले लगातार सामने आते जा रहे हैं। बिना शादी-संबंध के लड़के-लड़की एक जगह रह रहे हैं। यह व्यवस्था सामाजिक संस्थानों और संस्कृति के धज्जियां उडाने के लिए कानून जो बनाएं है यह उसकी बदहाली का एक रूप है।
]]>इसके अलावा पूर्व में एक नाबालिक बालिका साक्षी को प्रेम प्रसंग के चलते युवक द्वारा चाकू तथा पत्थरों से सरेराह भीड़ के बीच मौत के घाट उतारना एक दर्दनाक तथा भयावह घटना है। क्या हम मानव से पशु हो चुके हैं जो जो महिलाओं की इस तरह दर्दनाक हत्या करने और सार्वजनिक तौर पर बेइज्जत करने पर आमादा हैंl
इसके पूर्व भी एक युवती श्रद्धा की एक प्रेमी युवक द्वारा शरीर के 34 टुकड़े कर खौफनाक हत्या कर दी गई थी. ऐसा लगता है मानो समाज में कोई सुरक्षा व्यवस्था है ही नहींl दूसरी तरफ देश के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मेडल लाने वाली साक्षी मलिक विनेश फोगाट और अन्य महिला भारतीय कुश्ती संघ के पूर्व अध्यक्ष बृज भूषण सिंह के खिलाफ कार्रवाई की मांग को लेकर महिला तथा पुरुष पहलवानों द्वारा लगातार धरना प्रदर्शन किया जा रहा था बड़े संघर्षों और प्रयासों के बाद बृजभूषण सिंह के खिलाफ एफ आई आर के तहत कार्यवाही की जा रही है।
बात यहां तक पहुंच गई थी कि वे अपनी कड़ी मेहनत तथा खून पसीने से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा के बाद देश के लिए प्राप्त किए मेडल को हरिद्वार जाकर गंगा में विसर्जित करने के लिए मजबूर हो गई थी उन्हें समझा-बुझाकर ऐसा करने से रोक तो लिया गया है पर क्या न्याय में देरी न्याय के विमुख होना नहीं है, इसी तरह मणिपुर में हिंसा के खिलाफ मीराबाई चानू तथा अन्य 11 मेडलिस्ट ने अपने पदक वापस करने की घोषणा कर दी है।
स्थिति बड़ी अराजक एवं भयावह है देश में सुरक्षा तथा कानून व्यवस्था एकदम लचर हो गई है। महिलाएं असुरक्षित है और न्याय के लिए बाट जोहने पर मजबूर है। हम कागज में महिला सुरक्षा स्त्री सशक्तिकरण महिला भागीदारी की बढ़-चढ़कर बात करते हैं पर धरातल पर वेबसाइट के विपरीत और चिंतनीय है।
देश की विशाल जनसंख्या मैं 50% की भागीदारी रखने वाली राष्ट्र की संवेदनशील माताएं ,बहने अपने मूल तथा सार्थक अधिकार की तलाश में अभी भी संविधान और सरकार की तरफ आस लगाए इंतजार में बैठी हुई है। स्त्रियों का एक बड़ा तबका अभी भी अपनी स्वतंत्रता एवं मौलिक अधिकार से वंचित है। महिलाओं का विकास जितना विशाल आभासी रूप से दिखाया जा रहा है, वास्तविकता एवं धरातल पर स्थिति वैसी नहीं है। महिलाओं के भौतिक रूप से विकास के लिए एक जन अभियान और पृथक समेकित योजना की आवश्यकता देश में होगी तब जाकर महिलाओं के सशक्तिकरण की बात अपनी मूल भावना को प्राप्त कर पाएगा।
वर्तमान में भारत की विशाल जनसंख्या में 45% से 50% भागीदारी महिलाओं की है । महिलाओं को अभी उनके हक का अधिकार एवं भागीदारी सुनिश्चित नहीं हो पा रही है, ऐसे में रक्षा प्रतिरक्षा क्षेत्र में महिलाओं की भर्ती एक अच्छे संकेत के रूप में सामने आ रही हैl आज के समय में महिलाएं सभी क्षेत्रों में साहस, शौर्य और ऊर्जा का बेहतरीन प्रदर्शन करते आ रही हैं, महिलाएं पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर हर काम में अग्रणी भूमिका निभाने के लिए तैयार है।
अब इसमें सशस्त्र बलों यानी डिफेंस सर्विस भी अछूता नहीं रहा सबसे बड़ी बात स्वतंत्र भारत की दूसरी रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण बनी थी इसके पूर्व श्रीमती इंदिरा गांधी प्रथम रक्षा मंत्री रही थीl अब कोई भी क्षेत्र ऐसा अछूता नहीं रहा जहां महिलाओं ने अपनी सशक्त दस्तक ई पहचान ना कराई हो, यह तो पूर्व से ही कहा गया है यदि आप एक पुरुष को शिक्षित करते हैं तो सिर्फ एक पुरुष शिक्षक होता है किंतु यदि आप किसी महिला को सर्वांगीण शिक्षा देते हैं तो आने वाली संपूर्ण पीढ़ी को शिक्षित कर रहे हैं ।
नारी शक्ति को अब ज्यादा दिनों तक देश की प्रगति विकास के योगदान से परे नहीं रखा जा सकता हैl परिवार की धुरी महिलाएं होती है परिवार से घर बनता है धर से समाज और समाज और संपूर्ण समाज से एक सशक्त राष्ट्र की बुनियाद रखी जाती है। इस तरह देश की बुनियाद ही स्त्री सशक्तिकरण हैl महिलाएं अच्छी तरह समझती हैं कि घर से लेकर देश की सीमा तक उन्हें व्यवहार कर देश के विकास और उसकी रक्षा में उन्हें किस तरह योगदान देना है। महिलाओं के बिना देश की प्रगति एवं विकास की कल्पना सर्वथा बेमानी हैl
सशक्त माताएं सशक्त राष्ट्र का निर्माण करती हैंl और सीमा रक्षा बलों में महिलाओं की भागीदारी इसका एक बड़ा उदाहरण और प्रतिफल है इन उदाहरणों में से प्रथम लेफ्टिनेंट सुनीता अरोड़ा ,प्रथम एयर मार्शल पद्मावती बंदोपाध्याय ,कैप्टन मिताली मधुमिता ,भारत में आए अमेरिकी राष्ट्रपति को गार्ड ऑफ ऑनर देने वाली प्रथम विंग कमांडर पूजा ठाकुर ऐसे अधिकारियों के नाम है जिन्होंने रक्षा क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है एवं महिलाओं के प्रति सारी अवधारणाओं को गलत साबित कर एक सशक्त छवि को निरूपित किया हैl
महिलाओं की शारीरिक बनावट तथा उनके शारीरिक विन्यास को देखते हुए प्रतिरक्षा सेवा में उनकी भूमिका बहुत कम रही है,हम मां दुर्गा भवानी की पूजा करते हैं और महिलाओं को कमजोर समझते हैं। किंतु उनकी शक्ति को उनकी भागीदारी को अंततः स्वीकार किया गया और 1992 में पहली बार भारतीय सेना में महिलाओं के लिए द्वार खोले गए एवं 25 महिला कैंडिडेट को ऑफिसर ट्रेनिंग एकेडमी गया में ट्रेनिंग दी गई इसके पूर्व सिर्फ चिकित्सा सेवा में महिलाओं को नियुक्त किया जाता रहा है।
सेना में इनकी भागीदारी होते हुए भी इन्हें पुरुषों के समान अधिकार नहीं दिए गए थे, महिलाएं रक्षा सेवा में विधिक, शिक्षा, इंजीनियरिंग, इंटेलिजेंस तथा ऐयर सिग्नल कोर में अपनी सेवाएं देती रही हैं ।महिलाओं को केवल शॉर्ट सर्विस कमिशन जाने की 14 साल तक के लिए कमीशन किया जाता रहा जबकि पूरे समय के लिए केवल पुरुषों को ही सेना में भर्ती किया जाता थाl 2008 में उच्च न्यायालय के निर्देश पर महिलाओं को परमानेंट कमिशन पर रखा जाने लगा।
यह नारी सशक्तिकरण के लिए एक सशक्त मील का पत्थर साबित हुआl सेना की सैन्य प्रमुखों की समिति ने सशस्त्र बलों में महिलाओं की नियुक्ति पर स्थाई कमीशन की सिफारिश तो की किंतु इन्हें लड़ाकू सैनिकों की भूमिका देने से इनकार कर दिया उसके पीछे यह दलील दी गई की महिलाओं को लड़ाई के मैदान में भेजना उनकी व्यक्तिगत सुरक्षा के लिए ठीक नहीं एवं देश की संस्कृति के अनुसार महिलाओं को दुश्मन से लड़ने भेजना अथवा दुश्मन द्वारा पकड़े जाने पर उचित नहीं होगा।
इसलिए महिलाओं को फ्रंटलाइन में नियुक्त किया जाना उचित नहीं होगा किंतु बाद में कुछ संशोधन किए जाने के पश्चात महिला अधिकारी कॉम्बैट जोन में पदस्थ की जाने लगी किंतु समाज का नजरिया महिलाओं के संदर्भ में बदलने लगा एवं 2016 में सशस्त्र बलों के कॉम्बैट क्षेत्र में महिलाओं को नियुक्ति देने की बात स्वीकार की गई इसमें दुनिया में कुछ देश ही हैं जिन्होंने महिलाओं को वार फ्रंट पर नियुक्त किया है।
पूर्व के थल सेना प्रमुख बिपिन रावत ने भी कहा था कि हम महिला और पुरुष को समान रूप से देखना चाहते एवं इसके लिए जल थल और वायु सेना एक रूपरेखा तैयार कर रही है जिसके सुखद परिणाम भी होंगे,सशस्त्र बलों में महिलाओं की भागीदारी मजबूत रूप से सामने आएगी एवं पुरुषों की भांति देश की रक्षा तथा दुश्मनों से लोहा लेने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगीं।
]]>भारतीय बैंकों में बचत की दर काफी ऊंची है और इसके अलावा मध्यमवर्गीय बचत से भारत में समृद्धि और विकास की अपार संभावनाएं मौजूद है। विश्व बैंक के अध्यक्ष अजय बंगा जो कि इन दिनों तीसरी जी-20 वित्त मंत्रियों तथा केंद्रीय बैंक के गवर्नर ओं की बैठक में भाग लेने के लिए गांधीनगर गुजरात आए हुए हैं उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है कि भारत में क्षेत्रीय कनेक्टिविटी को मजबूत करने क्षेत्रीय समृद्धि को बढ़ावा देने और विकास के कार्यों को आगे बढ़ाने में सराहनीय कार्य किए हैं ।
अजय बंगा ने कहा कि विश्व बैंक भारत के आर्थिक रूप से वृद्धि को लेकर वे काफी आशावादी हैं और भारत को इन प्रयासों में तेजी लानी होगी। उन्होंने कहा कि भारत करोना महामारी के समय पैदा हुई चुनौतियों से मजबूत बनकर उभरा है और भारत वैश्विक स्तर पर कायम आर्थिक सुस्ती के बीच बहुत अच्छे कार्य कर रहा है जिसे उसे आगे रखने में काफी मदद मिलेगी। भारतीय अर्थव्यवस्था वैश्विक स्तर पर काफी सुस्ती होने के बावजूद अपने घरेलू उत्पाद की वजह से सुरक्षित है।
भारत को चीन प्लस 1 रणनीति का फायदा उठाना चाहिए 3 प्लस 1 रणनीति का मतलब है कि अब दुनिया के विकसित देशों की कंपनियां अपने निर्माण केंद्र के तौर पर चीन के साथ किसी अन्य देश को भी जोड़ना चाहती है और वर्तमान समय में भारत देश ही एक संभावित विकल्प बनकर उभरा है भारत को इस रणनीति का अवसर 10 वर्षों तक नहीं खुला रहेगा यह अवसर केवल 3 से 5 वर्ष तक ही खुला रह सकता है जिसका भारत को पूरा फायदा उठाना चाहिए।
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री मार्टिन वुल्फ ने तो स्पष्ट रूप से कहा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था निश्चित रूप से दुनिया में तेजी से बढ़ती हुई एक ताकत बनकर उभर रहा है और यही संभावनाएं पश्चिमी देशों को भारत पर दांव लगाने के लिए आकर्षित कर रही है उन्होंने कहा कि भारत की बढ़ती जनसंख्या और उसकी बचत करने क्षमता को देखते हुए भारत आगामी एक या दो दशक में विश्व की तीसरी आर्थिक शक्ति बन सकता है ।
अर्थशास्त्री तथा टिप्पणी कार मार्टिन वुल्फ़ ने कहा की आगामी दशकों में भारत की अर्थव्यवस्था और आबादी दोनों तेजी से बढ़ेगी और इसी के दम पर भारत चीन को बराबरी की टक्कर दे सकेगा इसके अलावा भारत के पश्चिमी देशों जैसे अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया ,फ्रांस ,कनाडा, इंग्लैंड, इजराइल और खाड़ी के देशों से आर्थिक संबंध काफी मजबूत हैं। पश्चिमी देश आने वाले समय में भारत को चीन की टक्कर देने वाला देश मान रहे हैं और अपना निवेश तथा समर्थन देने की पूरी संभावना तलाश रहे हैं।
भारत पश्चिमी देशों के लिए आर्थिक निवेश के लिए एक प्रमुख गंतव्य की तरह दिखाई दे रहा है जो भारत के लिए और उसके भविष्य के लिए बड़ा सकारात्मक पक्ष होगा। इंटरनेशनल मॉनिटरी फंड, विश्व बैंक और तमाम अर्थशास्त्रियों का मानना है कि भारत देश के बैंकों का बहीखाता बेहतर हो गया है और बैंकों की जमा पूंजी भी अच्छी खासी है इसके अलावा सकल वृद्धि भी एक बार फिर से बेहतर आकार ले रही है।
भारत के रणनीति कूटनीतिक तथा आर्थिक व्यवसायिक संबंध विश्व के प्रमुख देशों से बहुत ही मुकम्मल हो गए हैं जिससे भारत को पश्चिमी देशों के इन्वेस्टमेंट का बड़ा केंद्र माना जा रहा है यदि पश्चिमी देश चीन के अलावा भारत को एक इन्वेस्टमेंट का बड़ा विकल्प मानती है तो भारत को विश्व की तीसरी आर्थिक महाशक्ति बनने से कोई नहीं रोक सकता है।
]]>भारत अब आर्थिक तथा सामरिक तौर पर शक्तिशाली राष्ट्र बन गया हैl फ्रांस में वहां के राष्ट्रीय दिवस पर बेस्टिलडे परेड पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गेस्ट ऑफ ऑनर दिया गया और वहां के सर्वोच्च सम्मान से नवाजा भी गया है। इसके पहले फ्रांस में इस दिवस पर इंग्लैंड के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल और इजरायल के प्रधानमंत्री को ही यह अवसर प्राप्त हुआ था उस हिसाब से भारत के लिए यह बड़ा गौरवशाली दिवस था।
इसके अलावा फ्रांस तथा अमेरिका से भारत में अरबों डॉलर के रणनीतिक समझौते भी किए जिससे सामरिक तौर पर भारत एक मजबूत राष्ट्र बन गया है। प्रधानमंत्री मोदी को अब तक 17 राष्ट्रों ने अपना सर्वोच्च सम्मान प्रदान किया है। यह सम्मान भारत की 141 करोड़ जनता का भी सम्मान है। निश्चित तौर पर यह गौरव की बात है। भारत ने वैश्विक परिदृश्य में सफलता की नई ऊंचाइयों को छू कर नए आकाश में प्रवेश किया है। मैं किसी व्यक्ति विशेष अथवा राजनीतिक पार्टी का प्रशंसक अथवा हिमायती नहीं रहा हूं पर भारत ने पिछले एक दशक से सफलता के कई सोपानो को सफलतम तरीके से छुआ है।
हम स्वाधीनता का अमृत महोत्सव वर्ष मना रहे हैं हैं पर इस अमृत महोत्सव के पीछे हमें यह नहीं भूलना है कि भारत देश अब एक स्वतंत्र, आत्मनिर्भर राष्ट्र के रूप में वैश्विक स्तर पर ख्याति प्राप्त कर चुका है। अब समय आ गया है कि भारत के तमाम बुद्धिजीवियों,नौजवानों के वैज्ञानिकों और शिक्षित देशवासियों को वैश्विक नेतृत्व की ओर अग्रसर होने की क्षमता को द्विगुणित करना होगा और विश्व के एक प्रबल नेता की तरह हमें अपनी शक्ति प्रदर्शित करनी होगी।
कई वर्षों की परतंत्रता के बाद अनेको जीवन का बलिदान देने और विभिन्न कठोर संघर्षों के बाद हमें स्वतंत्रता प्राप्त हुई है। इस स्वतंत्रता और स्वाधीनता के मूल्य और इसकी अंतर्निहित शक्ति को देश के नौजवानों,शिक्षित नागरिकों को आत्मसात कर इसे पहचानना होगाl समाज के हर वर्ग की खून पसीने और पीढीयों के संघर्ष के बाद प्राप्त स्वतंत्रता को हमें देश की एकता, अखंडता एवं सामाजिक समरसता की शक्ति से चिरकाल तक स्थाई रूप से बनाए रखना है।
स्वतंत्रता के महत्व को समझ कर भारत को वैश्विक स्तर पर श्रेष्ठतम मुकाम पर पहुंचाना होगा तब जाकर स्वाधीनता के सही मायने फलीभूत होंगे। हमें स्वतंत्रता संग्राम के संघर्ष और बलिदान को किसी भी क्षणों में नहीं भुलाना चाहिए, हमें हाथ में रखकर किसी ने परोस के स्वतंत्रता नहीं दी है, इसके लिए बहाये हुए खून पसीने को विश्मृत न कर के इस की आन बान शान को हमेशा ऊंचा रखना होगा। कभी स्वतंत्रता पर खतरा ना आए इसके लिए यह हमारे देश के दिग्दर्शकों को अपनी कर्मठ जिजीविषा से बनाए रखना होगा।
स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद हमारी एकता, अखंडता एवं एकरूपता मजबूत हुई है, पर कतिपय राजनैतिक मंसूबों के कारण आज हम सांप्रदायिकता, क्षेत्रीयता, जातीयता और अलग-अलग भाषाओं के संघर्षों से गुजर रहे हैं। हम आज मंदिर ,मस्जिद, गुरुद्वारा और चर्च के विवाद को लेकर विवाद ग्रस्त हो जाते हैं । कभी हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, पंजाबी,मराठी,तेलगु,और कभी असमी भाषा के असमंजस में फंस कर एक दूसरे का विरोध जताना शुरू कर देते हैं।
मूलतः हमें राष्ट्रीय अखंडता को बनाए रखने के लिए सांप्रदायिकता के विद्वेष, ईर्ष्या, जलन और सीमा तथा भाषाई विवाद से परे हटकर देश में अखंडता, सांप्रदायिक सद्भावना का एक शुद्ध वातावरण समाज में तैयार करना होगा, जिसके फलस्वरूप हम विकास की मुख्यधारा में अपना व्यक्तिगत योगदान राष्ट्र के प्रति दे संके। डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी ने कहा था कि “भारत संपूर्ण विश्व में एक अकेला ऐसा राष्ट्र है जहां मंदिरों ,मस्जिदों, गिरजाघरों और गुरुद्वारों का एक एकात्मक सह अस्तित्व कायम है”।
वर्तमान समय में वैश्विक स्तर पर आतंकवाद शांति सद्भावना एवं किसी भी राष्ट्र की अखंडता एकता एकरूपता के लिए सबसे बड़ा खतरा है। आतंकवादी कभी अमेरिका और कभी भारत के दिल्ली, मुंबई और अनेक प्रदेशों को अपना निशाना बनाकर आतंक फैलाने का प्रयास करते हैं और आतंकवाद ने कई राज्यों में अपार जनहानि तथा संपत्ति की क्षति पहुंचाई है।
इसके अतिरिक्त अलगाववादियों ने भी राष्ट्रीय एकता अखंडता को भंग करने का पुरजोर प्रयास किया है। राजनीतिक पार्टियों के मंसूबों तथा उनकी महत्वाकांक्षाओं के कारण भी अलग-अलग जातियों संप्रदाय तथा पूजा के पवित्र स्थानों को लेकर समाज को अलग करने का बीजारोपण भी किया है।
राजनीतिक पार्टियों के चंद राजनेता वोट बैंक बनाने के लिए कभी अल्पसंख्यकों में अलगाव के बीच बोलने का प्रयास करते हैं। कभी आरक्षण के नाम पर पिछड़े वर्गों को देश की मुख्यधारा से बहकाने का प्रयास करते हैं, और कभी किसी विशेष जाति प्रांत या भाषा के हकदार बन कर देश की एकता, अखंडता को खंडित करने का पुरजोर प्रयास करते हैं।
यह अत्यंत निंदनीय एवं चिंतनीय सामाजिक पहलू है, जिस संदर्भ में हमें गहन विचार करने की आवश्यकता भी है। सामाजिक स्तर पर हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई एवं अन्य वर्ग सुचारू रूप से भाईचारे में अखंड विश्वास रखते हैं एवं सामान्य जीवन करने में विश्वास रखते हैं। पर राजनैतिक मंसूबों के कारण कुछ राजनेता इन सभी संप्रदायों को आपस में लड़वाकर अपना उल्लू सीधा करने का प्रयास करते हैं।
पर यह एक अत्यंत विचारणीय पहलू है कि राष्ट्रीय अखंडता एकता तथा सहयोग को बनाए रखने के लिए केवल राजनेता या प्रशासनिक अधिकारियों का कार्य न होकर हम सबका यह कर्तव्य भी है कि हमें एकजुट होकर राष्ट्र सर्वोपरि की भावना को सदैव बनाए रखने का सतत प्रयास करना चाहिए।
हम यदि ऐतिहासिक रूप से देखें की अनेक धर्मो जातियों और अनेक भाषाओं वाला भारत देश पूर्व में अनेक विसंगतियां के बावजूद सदैव एकता के सूत्र में बंधा रहा है। भारत देश में पूर्व में भी अनेक विदेशी जातियां आई और धीरे-धीरे भारत की मूल धारा में समाहित होती गई। भारत में आगमन के साथ इन्हीं जातियों की परंपराएं, विचारधाराएं, संस्कृति, संस्कार भारत की मुख्य धारा में एक रूप हो गई और भारत की सांप्रदायिक सौहार्द की भावना आज भी वैसी की वैसी ही है।
भारत के जिम्मेदार नागरिक होने के कारण हमारी बड़ी नैतिक जिम्मेदारी है कि हम इस देश की अखंडता एकता समरूपता और परंपरा को मजबूत बनाकर विश्व के सामने एक मिसाल के रूप में पेश करें। यह सार्वभौमिक सत्य है कि कोई देश यदि संगठित एक रूप और शक्तिमान होता है तो सारा विश्व उसकी इस ऊर्जा शक्ति को चिन्हित कर उसका सम्मान करता है।
और उस पर आक्रमण या किसी भी तरह के प्रतिबंध लगाने से भयभीत रहता है। जब तक हम एकता के सूत्र में बंधे तब तक हम मजबूत एवं शक्तिशाली हैं और जब हम खंडित या विघटित हुए तब तब देश कमजोर हुआ है। अब हमें इन विघटनकारी ताकतों और विध्वंस कारी शक्तियों को नियंत्रण में लाकर इन्हें देश से बाहर भगाना होगा और इन पर प्रभावी नियंत्रण कर के देश की संप्रभुता एकता को बनाए रखना होगा। इसके लिए देश के संचार माध्यम, मीडिया, साहित्यकारों, कलाकारों को राष्ट्रीय एकता के लिए अपने को समर्पित भाव से सामने लाकर देश की सेवा करनी होगी।
]]>2006 में केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) द्वारा गठित एक टास्क फोर्स ने बाढ़ जोखिम मानचित्रण का कार्य पूरा नहीं किया। बाढ़ क्षति का आकलन पर्याप्त रूप से नहीं किया गया। बाढ़ प्रबंधन कार्यक्रमों के तहत परियोजनाओं के पूरा होने में देरी मुख्य रूप से केंद्र की सहायता की कमी के कारण होती है। बाढ़ प्रबंधन के कार्य एकीकृत तरीके से नहीं किये जाते हैं। भारत के अधिकांश बड़े बांधों में आपदा प्रबंधन योजना नहीं है- देश के कुल बड़े बांधों में से केवल 7% के पास आपातकालीन कार्य योजना/आपदा प्रबंधन योजना है।
चूंकि बाढ़ से हर साल जान-माल को बड़ा नुकसान होता है, इसलिए अब समय आ गया है कि केंद्र और राज्य सरकारें एक दीर्घकालिक योजना तैयार करें जो बाढ़ को नियंत्रित करने के लिए तटबंधों के निर्माण और ड्रेजिंग जैसे टुकड़ों-टुकड़ों के उपायों से आगे बढ़े। इसके अलावा, एक एकीकृत बेसिन प्रबंधन योजना की भी आवश्यकता है जो सभी नदी-बेसिन साझा करने वाले देशों के साथ-साथ भारतीय राज्यों को भी साथ लाए।
बाढ़ पर भारत के पहले और आखिरी आयोग के गठन के कम से कम 43 साल बाद, देश में अब तक कोई राष्ट्रीय स्तर का बाढ़ नियंत्रण प्राधिकरण नहीं है। राष्ट्रीय बाढ़ आयोग (आरबीए), या राष्ट्रीय बाढ़ आयोग, की स्थापना 1976 में कृषि और सिंचाई मंत्रालय द्वारा भारत के बाढ़-नियंत्रण उपायों का अध्ययन करने के लिए की गई थी, क्योंकि 1954 के राष्ट्रीय बाढ़ नियंत्रण कार्यक्रम के तहत शुरू की गई परियोजनाएं ज्यादा सफलता हासिल करने में विफल रहीं। .
हाल ही में, उत्तरी राज्यों में बाढ़ ने जीवन और संपत्ति की तबाही मचाई है, जो इस क्षेत्र में एक समस्या है। हालाँकि, बाढ़ केवल उत्तर-पूर्वी भारत तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह देश के कई अन्य क्षेत्रों को प्रभावित करती है। मानसून के दौरान लगातार और भारी वर्षा जैसे प्राकृतिक कारकों के अलावा, मानव निर्मित कारक भी हैं जो भारत में बाढ़ में योगदान करते हैं।
भारत अत्यधिक असुरक्षित है, क्योंकि इसके अधिकांश भौगोलिक क्षेत्र में वार्षिक बाढ़ का खतरा रहता है। बाढ़ के कारण होने वाली उच्च हानि और क्षति भारत की खराब अनुकूलन और शमन स्थिति और आपदा प्रबंधन और तैयारियों में अपर्याप्तता को दर्शाती है। अत: एक एकीकृत बाढ़ प्रबंधन प्रणाली की आवश्यकता है।
1980 में, राष्ट्रीय बाढ़ आयोग ने 207 सिफारिशें और चार व्यापक टिप्पणियाँ कीं। सबसे पहले, इसने कहा कि भारत में वर्षा में कोई वृद्धि नहीं हुई और इस प्रकार, बाढ़ में वृद्धि मानवजनित कारकों जैसे वनों की कटाई, जल निकासी की भीड़ और बुरी तरह से नियोजित विकास कार्यों के कारण हुई। दूसरा, इसने बाढ़ को नियंत्रित करने के लिए अपनाए गए तरीकों, जैसे तटबंधों और जलाशयों की प्रभावशीलता पर सवाल उठाया और सुझाव दिया कि इन संरचनाओं का निर्माण उनकी प्रभावशीलता का आकलन होने तक रोक दिया जाए। हालाँकि, इसमें यह कहा गया कि जिन क्षेत्रों में वे प्रभावी हैं, वहाँ तटबंधों का निर्माण किया जा सकता है।
तीसरा, इसमें कहा गया कि बाढ़ को नियंत्रित करने के लिए अनुसंधान और नीतिगत पहल करने के लिए राज्यों और केंद्र के बीच समेकित प्रयास होने चाहिए। चौथा, इसने बाढ़ की बदलती प्रकृति से निपटने के लिए एक गतिशील रणनीति की सिफारिश की। रिपोर्ट के विश्लेषण से पता चला कि समस्या देश के बाढ़-ग्रस्त क्षेत्रों के आकलन के तरीकों से शुरू हुई। भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक द्वारा “बाढ़ नियंत्रण और बाढ़ पूर्वानुमान के लिए योजनाएं” 2017 की ऑडिट रिपोर्ट के अनुसार राष्ट्रीय बाढ़ आयोग की प्रमुख सिफ़ारिशें जैसे बाढ़ संभावित क्षेत्रों का वैज्ञानिक मूल्यांकन और फ्लड प्लेन ज़ोनिंग एक्ट का अधिनियमन अभी तक अमल में नहीं आया है।
सीडब्ल्यूसी का बाढ़ पूर्वानुमान नेटवर्क देश को पर्याप्त रूप से कवर करने के लिए पर्याप्त नहीं है। इसके अलावा, अधिकांश मौजूदा बाढ़ पूर्वानुमान स्टेशन चालू नहीं हैं। 2006 में केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) द्वारा गठित एक टास्क फोर्स ने बाढ़ जोखिम मानचित्रण का कार्य पूरा नहीं किया। बाढ़ क्षति का आकलन पर्याप्त रूप से नहीं किया गया। बाढ़ प्रबंधन कार्यक्रमों के तहत परियोजनाओं के पूरा होने में देरी मुख्य रूप से केंद्र की सहायता की कमी के कारण होती है। बाढ़ प्रबंधन के कार्य एकीकृत तरीके से नहीं किये जाते हैं। भारत के अधिकांश बड़े बांधों में आपदा प्रबंधन योजना नहीं है- देश के कुल बड़े बांधों में से केवल 7% के पास आपातकालीन कार्य योजना/आपदा प्रबंधन योजना है।
नवीनतम तकनीकों की एक विस्तृत श्रृंखला का उपयोग करके बाढ़ की चेतावनियों का प्रसार किया जाना चाहिए। इससे पारंपरिक सिस्टम विफल होने पर वास्तविक समय डेटा देने में मदद मिलेगी। पानी एक ही स्थान पर जमा न हो इसके लिए जल निकासी व्यवस्था का उचित प्रबंधन आवश्यक है। ठोस अपशिष्ट हाइड्रोलिक खुरदरापन बढ़ाता है, रुकावट का कारण बनता है और आम तौर पर प्रवाह क्षमता को कम करता है। पानी के मुक्त प्रवाह की अनुमति देने के लिए इन नालियों को नियमित आधार पर साफ करने की आवश्यकता है।
शहरीकरण के कारण, भूजल पुनर्भरण में कमी आई है और वर्षा और परिणामस्वरूप बाढ़ से चरम अपवाह में वृद्धि हुई है। यह चरम अपवाह को कम करने और भूजल स्तर को ऊपर उठाने के दोहरे उद्देश्यों को पूरा करेगा। शहरी जल निकाय जैसे झीलें, टैंक और तालाब भी तूफानी जल के बहाव को कम करके शहरी बाढ़ के प्रबंधन में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
]]>जून, 2023 के दौरान, 11.42 ट्रैक किलोमीटर का थ्रू स्लीपर रिनुअल किया गया, जिससे 30.45 ट्रैक किलोमीटर की संचयी प्रगति हासिल की गई। जून, 2023 में 5.25 समतुल्य सेटों का थ्रू टर्नआउट रिनुअल भी किया गया, जिससे 22.25 सेटों की संचयी प्रगति हुई।
इसके अलावा, जून, 2023 में यूएसएफडी (अल्ट्रा सोनिक फ्लॉ डिटेक्शन) तकनीक द्वारा 1730.92 किलोमीटर ट्रैक का परीक्षण किया गया है। यूएसएफडी तकनीक दरारों जैसी खामियों का पता लगाने के लिए किया जाता है और इसके बाद सुरक्षा कारणों के लिए दोषपूर्ण पटरियों को समय पर हटाया जाता है।
जून, 2023 के दौरान 03 ईएसपी (इंजीनियरिंग स्केल प्लान) और 18 सिग्नल एवं दूरसंचार योजनाओं को अनुमोदित की गई है। फ्लैश बट वेल्डिंग विधि का उपयोग कर 342 रेल ज्वाइंटों की वेल्डिंग की गई है, इस प्रकार कुल संचयी प्रगति 2405हुई। इसके अलावा, इस अवधि के दौरान पू. सी. रेल पर विभिन्न क्षमताओं की 684 सिग्नलिंग बैटरियां बदली गईं।
नियमित अंतराल पर पटरियों के रखरखाव के परिणामस्वरूप ट्रेनों का सुचारू संचालन हुआ है और रेल यात्रियों को बेहतर सवारी का अनुभव मिलता है। रेलवे ट्रैक के लिए सुरक्षा उपायों पर बढ़ते जोर के कारण ट्रेनों की गति में वृद्धि और बेहतर यात्:रा अनुभव के साथ सुरक्षित परिचालन संभव हुआ है।
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